कुछ विद्वानों का मत है कि व्यवस्था परिवर्तन हेतु युवा बैंक कर्मियों को यूनियन में सक्रिय रूप से भागीदारी करनी चाहिए -यूनियन के चुनाव में भाग लेना चाहिए और प्रजातांत्रिक पद्धति से नेताओं को बदल देना चाहिए । सैद्धांतिक दृष्टिकोण से यह बात केवल काग़ज़ पर ही सही नज़र आती है -बैंकिंग उद्योग में इसका यथार्थ से कोई नाता नहीं है । कैसे ? इसे हाल के उदाहरणों से समझें ।
बैंकिंग उद्योग में जो सबसे बड़ी लाल झण्डे वाली यूनियन है -उसके सबसे बड़े नेता जी का सर्वाधिक विरोध हुआ । यहाँ तक कि उसी यूनियन के लोगों ने ग्रूप बनाए और नेता जी को हटाने का अभियान चलाया -यदि आप उसी यूनियन का सर्वे करेंगे तो पाएँगे कि नेता जी का यूनियन में व्यापक विरोध है और यदि सदस्यों को सीधे मत देने का अधिकार मिल जाय तो नेता जी किसी हालत में नहीं जीत पाएँगे । अब ज़रा यथार्थ पर नज़र डालिए -नेता जी ने चेन्नई में यूनियन के भव्य अधिवेशन का आयोजन किया और सर्वसम्मति से फिर चुन लिए गए और अब ११वें वेतन समझौते में हमेशा की तरह निर्णायक भूमिका अदा करने को तैयार हैं ।
अब ज़रा दूसरे नम्बर की यूनियन पर निगाह डालें -इस यूनियन की असली ताक़त स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया है जहाँ फ़ेडरेशन का एकाधिकार है -उसके बाद बैंक ऑफ़ बड़ौदा और एक आध बैंकों में यह यूनियन बहुमत में है -अकेले स्टेट बैंक के बूते यह यूनियन लगभग एक तिहाई बैंक कर्मियों की संख्या अर्जित कर लेती है और इस पर एकाधिकार भी स्टेट बैंक की फ़ेडरेशन का है और एक तरह से महामंत्री का महत्वपूर्ण पद फ़ेडरेशन के लिए आरक्षित है । बड़ी यूनियन की तरह यहाँ चुनाव की औपचारिकता भी नहीं होती और स्टेट बैंक की फ़ेडरेशन जिस नाम को तय कर देती है वह रातों रात इसका महामन्त्री हो जाता है ।
यह दो यूनियन मिल कर लगभग ८०% बैंक कर्मियों का प्रतिनिधित्व करती हैं -शेष २०% बैंक कर्मी तीन यूनियनों में विभाजित हैं -इन यूनियनों में से एक को छोड़ बाँकी दो यूनियनों के सामने नेतृत्व का संकट है -वहाँ नेता पद छोड़ना चाहते हैं लेकिन कोई दूसरा उस चुनौती का सामना करने के लिए आगे आने को तैयार नहीं है ।
अब ज़रा राष्ट्रीय स्तर पर द्विपक्षीय समझौते के लिए जो खेल चलता है उसे ठीक से समझ लें -क्योंकि दो नम्बर की यूनियन की अधिकांश सदस्यता स्टेट बैंक में है जहाँ द्विपक्षीय समझौते के बाद स्टेट बैंक में अलग से अतिरिक्त लाभ देने की परम्परा है -इसलिए यह यूनियन बड़ी वाली यूनियन का कोई विरोध नहीं करती बल्कि अपरोक्ष रूप से उनका समर्थन करती है । उसका एकमात्र उद्देश्य होता है कि द्विपक्षीय समझौता तेज़ी से सम्पन्न हो ताकि स्टेट बैंक में अपने सदस्यों को अतिरिक्त लाभ दिलवा सकें । दूसरे नम्बर की यूनियन द्वारा पहले नम्बर की यूनियन का समर्थन करने के रहस्य से पर्दा नौवें द्विपक्षीय समझौते के बाद उठा जब गणपति सुब्रमणीयन भाई की कैनारा बैंक की एक छोटी सी यूनियन ने असीम बहादुरी का परिचय देते हुए पेन्शन में अंशदान को माननीय मद्रास उच्च न्यायालय में समझौते पर हस्ताक्षर करने वाली सभी यूनियनों को विपक्षी बनाते हुए चुनौती दी -तब आश्चर्यजनक तरीक़े से दूसरे नम्बर की यूनियन ने उसकी ओर से जवाब व शपथ पत्र देने का अधिकार बड़ी यूनियन के बड़े नेता जी को दे दिया और उन्होंने दूसरे नम्बर की यूनियन की ओर से भी जवाब दाख़िल किया ।
यह जान लेने के बाद कि लगभग ८०% बैंक कर्मियों का प्रतिनिधित्व परिस्थितिजन्य परोक्ष अथवा अपरोक्ष तरीक़े से बड़े नेता जी को हांसिल हो जाता है -अब अधिकारियों के संघठन पर ग़ौर करते हैं । यहाँ जो एक नम्बर की यूनियन है उसकी स्थिति कर्मकारों की दो नम्बर की यूनियन के समान है क्योंकि यह यूनियन स्टेट बैंक फ़ेडरेशन की तरह स्टेट बैंक में प्रचंड बहुमत में है -वैसे तो यह लगभग सभी बैंकों में प्रचंड बहुमत में है लेकिन अकेले स्टेट बैंक की सदस्य संख्या सब पर भारी है इसलिए तूती स्टेट बैंक के नेता की बोलती है -स्टेट बैंक में अतिरिक्त सुविधा पा लेने वाली युक्ति यहाँ भी कर्मकारों की सबसे बड़ी यूनियन को परोक्ष अथवा अपरोक्ष रूप से समर्थन करवा देती है । जो दूसरे नम्बर की यूनियन है वह तो कर्मकारों की बड़ी यूनियन द्वारा ही बनायी गयी है और उसकी सदस्य संख्या भी इतनी नहीं कि वह बड़े नेता जी का विरोध करने का साहस जुटा सके । जो तीसरे नम्बर की यूनियन है उसके नेता जी अधिकारियों के सबसे क़ाबिल नेता हैं जिसका प्रमाण उस बैंक के अधिकारियों को मिलने वाली सुविधाएँ हैं जहाँ यह यूनियन बहुमत में है । इन नेता जी को लेकर तब समस्या पैदा हो गयी जब IBA ने अधिकारियों के मामले में सेवानिवृत्त अधिकारी नेता से वार्ता करने से मना कर दिया । एक दूसरे के धुर विरोधी होने के बावजूद उस वक़्त कर्मकारों के बड़े नेता जी कूटनीतिक तरीक़े से इनके पक्ष में आ गए और उन्होंने आईबीए पर दवाब बना उसे इन नेताजी से वार्ता हेतु मना लिया -तब से यह नेता जी भी बड़े नेता जी के समर्थक हो गए । जो चौथी यूनियन है उसकी सदस्य संख्या नगण्य है ।
इस तरह बड़ी यूनियन के बड़े नेता जी को ९ में से ५ यूनियनों का समर्थन हांसिल है जो द्विपक्षीय समझौते में नेता जी को निर्णायक भूमिका में ला देती है और नेता जी आकंठ घमण्ड से चूर हो कर मनमानी करते हैं -उनके ख़िलाफ़ अगर अभी तक कोई आवाज़ उठी है तो वह श्री सुभाष सावन्त जी की आवाज़ है लेकिन दिक़्क़त यह है कि न तो सावन्त जी के पास प्रचुर संख्या है और न ही उपरोक्त कारणों से उन्हें अपेक्षित सहयोग मिलता है -नौवें और दसवें समझौते के दौरान श्री सावन्त द्वारा बैंक कर्मियों के हितों की ख़ातिर मौखिक और लिखित विरोध समर्थन के अभाव में निष्फल चला गया ।
अब ज़रा सोचिए और चिंतन कीजिए कि इन परिस्थितियों में युवा बैंक कर्मी क्या भूमिका अदा कर सकते हैं ? वी बैंकर्स के आंदोलन के दौरान जो युवा नेता उभरे उन्हें वी बैंकर्स के आंदोलन को कमज़ोर करने के उद्देश्य से यूनियनों में समायोजित कर लिया गया और उन्हें बैंक स्तर की यूनियनों में सहायक मंत्री संघठन मंत्री जैसे प्रभावहीन पदों को झुनझुना पकड़ा दिया गया और उन्हें कल का नेता कहते हुए झूठी तारीफ़ की जाती है । जहाँ जहाँ वी बैंकर्स के युवाओं ने स्थापित नेताओं को चुनौती देते हुए मुख्य पदों पर दावा ठोंका है वहाँ वहाँ या तो बेइमानी हुई है या स्थापित नेता युवा नेता को प्रबंधन से मिल कर शिकार बनाने को उतारू हैं ।
कुल मिलाकर स्थितियों में न तो कोई परिवर्तन हुआ है और न ही कोई सम्भावना है -ऐसे में केंद्रीय सरकार के कर्मचारियों के बराबर वेतन पेन्शन और अन्य सुविधाएँ पाने की अभिलाषा एक दिवास्वप्न के अलावा कुछ नहीं है ।
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